रसों की आनन्दरूपता
Keywords:
रसों की आनन्दरूपता, सामाजिक के हृदयAbstract
रसों की आनन्दरूपता का वर्णन करते हुए स्वामी सुरजनदास जी बताते हुए कहते हैं कि अभिनवगुप्त के अनुसार शृंगार, करूण, वीर आदि सभी रस आनन्द प्रदान करने वाले हैं। क्योंकि साधारणीकृत विभावादि उपायों से सामाजिक के हृदय में पहले से ही संस्काररूप में विद्यमान रति का जो भाव है वह देशकालव्यक्तिविशेषादि सभी विशेषताओं से अलग होकर के रतित्व रूप से ही अभिव्यक्त होती है। उसमें तन्मीयभाव के द्वारा जब सामाजिक मानव का चित्त रजोगुण व तमोगुण के अभिभव से युक्त सत्त्वगुण की प्रधानता से अन्तर्मुखी होकर आत्मा में निमग्न होता है तब वह साधारणीकृत रतिविशिष्ट आनन्दधन ज्ञानरूप आत्मा की अनुभूति करता है। आत्मा आनन्दस्वरूप है इसलिए आनन्द की ही प्रतीति होती है। यद्यपि रस के आस्वादन के समय सामाजिक का चित्त परिपक्व योगी की तरह शुद्ध आत्म की अनुभूति नहीं करता है। वहाँ पर सुख-दुःखात्मक रति आदि भावों की भी स्थिति होने से सुख के साथ दुःख की प्रतीति भी संभव है। अतः रस को इस तरह एकान्ततः आनन्दरूप नहीं माना जा सकता है। जब रति आदि भाव लोक से जुड़े होते है तभी वह लौकिक सुखदुःख के जनक होते है। सब प्रकार से लोक सम्बन्ध से हट जाने पर उनमें न तो सुखात्मकता रहती है और न ही दुःखात्मकता रहती है। जैसे पुत्र की उत्पत्ति सुखजनक होती है किन्तु वह सुखजनक तभी है जब उस पुत्र के साथ हमारा स्वत्वसम्बन्धरहित जुड़ा रहता है।
References
अभिनवभारती, पृव्म् 44
अभिनवभारती, पृव्म् 45
तत्र सवैऽमी सुखप्रधानाः। स्वसंविच्चर्वणारूपस्यैकघनस्य प्रकाशस्यानन्दसारत्वात्। यथा हि - एकघनशोकसंविच्चर्वणेऽपि लोके स्त्रीलोकस्य हृदयविश्रान्तिरन्तरायशून्यविश्रान्तिशरीरत्वात् सुखस्यः। (अभिनवभारती, पृव्म् 282)