हरिवंशराय बच्चन की कविता ’अँधेरे का दीपक’ में आस्थावादी और आशावादी विचारों की विवेचना

Authors

  • चहल

Keywords:

मनुष्य कल्पना

Abstract

प्रकृति में विनाश और निर्माण निरंतर चलता रहता है, इसलिए इन परिवर्तनों से घबराने की आवश्यकता नहीं है। अँधेरी रात में दीया जलाने की मनाही नहीं है। कवि कहते हैं कि मनुष्य कल्पना के सहारे अपने सुंदर भवन का निर्माण करता है। अपनी भावना के सहारे उसे विस्तारित करता है। अपने स्वप्न-करों से उसे सजाता-सँवारता है। अपने सुंदर भवन को स्वर्ग के दुर्लभ व अनुपम रंगों से सजाता है। यदि वह कमनीय मंदिर ढह जाए तो दोबारा ईंट, पत्थर, कंकड़ आदि जोड़कर शांति की कुटिया बनाने की मनाही तो नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि कल्पनाओं का संसार छिन्न-भिन्न हो जाने पर, सपने टूट जाने पर इनसान को निराश या हताश होने की बजाय आशावादी बनना चाहिए।

कवि ने मानव में आशावादी स्वर का संचार करते हुए कहा है कि यदि नीले आसमान के गहरे रंग का अत्यंत बहुमूल्य और सुंदर मधुपात्र जिसमें ऊषा की किरण समान लालिमा जैसी लाल मदिरा नव-घन में चमकने वाली बिजली के समान छलका करती थी। यदि वह मधुपात्र टूट जाए तो निराश होने की क्या जरूरत है, बल्कि अपनी हथेली की अंजुलि बनाकर प्यास बुझाने की मनाही तो नहीं है। अर्थात्‌ विनाश प्रकृति का शाश्वत नियम है और जो बना है, वह नष्ट भी होगा।

References

अँधेरे का दीपक , हरिवंशराय ’बच्चन’

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Published

2018-03-30

How to Cite

चहल स. (2018). हरिवंशराय बच्चन की कविता ’अँधेरे का दीपक’ में आस्थावादी और आशावादी विचारों की विवेचना. Universal Research Reports, 5(1), 81–83. Retrieved from https://urr.shodhsagar.com/index.php/j/article/view/488

Issue

Section

Original Research Article