वैदिक काल मे चतुर्वर्ण का तुलनात्मक अध्ययन

Authors

  • पण्डित

Keywords:

ऋग्वैदिक काल, क्षत्रिय

Abstract

स्ववर्णान्तर्गत होकर निर्दिष्टि सामाजिक व्यवस्था का अनुपालन करे इस हेतु समाज को चार वर्णों मे नियोजित किया गया था। सर्वप्रथम ऋग्वेद मे इस व्यवस्था के दर्शन होते हैं। तद्नुसार विराट पुरुष के मुख, बाहु, उरु तथा पैरों से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र की उत्पत्ति हुई थी। अपने मूल रुप मे वर्ण-व्यवस्था पूर्णरुपेण कर्मणा थी। जिसका अर्थ है कि प्रारम्भिक तौर पर कर्म की ही महत्त्ता थी। परिणामस्वरुप सभी वर्णों का समाज मे यथेष्ट सम्मान एवं स्थान था। सभी वर्ण भी अपने लिए निर्दिष्ट कर्मों को पूरी निष्ठा तथा मनोयोग से करते थे। किन्तु शनैः शनैः समाज की बदलती हुई परिस्थितियों तथा सामयिक आवश्यकताओं के चलते वर्णों की सामाजिक स्थितियों मे भी परिवर्तन आने लगा। कभी ब्राह्मण समाज मे सर्वोच्च प्रतिष्ठित हो गए तो कभी क्षत्रियों ने सर्वोच्चता के लिए संघर्ष किया। कहने का आशय यह कि प्राचीन भारत मे चारों वर्णों की स्थितियाँ काल एवं परिस्थितियों के परिवर्तन से निरन्तर परिवर्तित होती रही।

References

ऋग्वेद, 10/90/12, ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहु राजन्यः कृतः।

उरु तदस्य यद् वैश्यः पद्भ्यांशूद्रोअजायत।।

वही, 1/164/45,

वही, 9/112/3, कारुरहं ततो भिषगुलप्रक्षिणी नना।

नानाधियो वसूयवोनु गा इव तस्थिम।।

वही, 7/64/2,

वही, 10/39/14, एतं वा स्तोममश्विनावकर्मा तक्षाम भृगवो न रथम्।

न्यमृक्षाम योषणा न मर्ये नित्यं सूनुं तनयं दधानाः।।

वही, 4/42/1,

वही, 7/46/2,

वही, 10/90/12, .................................................... पद्भ्यांशूद्रोअजायत।।

वही, 8/46/32,

अथर्ववेद, 3/5/7,

Downloads

Published

2018-03-30

How to Cite

पण्डित ह. (2018). वैदिक काल मे चतुर्वर्ण का तुलनात्मक अध्ययन. Universal Research Reports, 5(1), 348–351. Retrieved from https://urr.shodhsagar.com/index.php/j/article/view/533

Issue

Section

Original Research Article