प्रभा खेतान के उपन्यासों में स्त्री विमर्श
Keywords:
हिन्दी महिला, सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिकAbstract
20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हिन्दी महिला उपन्यासकारों की सशक्त हस्ताक्षर के रूप में डाॅ. प्रभा खेतान जी (1942-2010) का नाम बड़े ही आदर से लिया जाता है। उनका सम्पूर्ण जीवन ही स्त्री के हितों की पैरवी करते हुए बीता है। अपने जीवन के आरंभ से ही उन्होंने स्त्री को असहाय, बेबस, पराश्रित, भेदभावों को चुपचाप सहती हुई, उपेक्षा एवं शोषण के बीच पाया। फिर यह शोषण पारिवारिक, सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक हो या आर्थिक, मानसिक-शारीरिक हो या किसी भी स्तर का ही क्यों न हो, उन्होंने स्त्री को हर कहीं उपेक्षित एवं अपने अधिकारों से वंचित पाया है। प्रभा खेतान सामाजिक संस्थानों की नारी विरोधी प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए कहती हैं-‘‘मगर पितृसत्तात्मक समाज की स्त्री-विमर्श परम्पराओं का आशय पूरी तरह विशिष्ट है। ये परम्पराएॅं स्त्री को घर सौंपती हैं, बच्चों का भरण-पोषण सौंपती है। मानवता के नाम पर वृद्ध और बीमारों के लिए उससे निशुल्क सेवा लेती है और बदले में उसके द्वारा की गई सेवाओं का महिमा मंडन कर अपने कत्र्तव्यों की इतिश्री कर लेती है। स्त्री भूखी है या मर रही है इसकी चिंता किसी को नहीं होती....।
References
खेतान, डाॅ. प्रभा, उपनिवेश में स्त्री: मुक्ति कामना की दस वार्ताएॅं, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली, 2003, पृ. 15
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खेतान, डाॅ. प्रभा, आओ पेपे घर चलें, सरस्वती विहार, दिल्ली, 1990, पृ. 109
खेतान, डाॅ. प्रभा, आओ पेपे घर चलें, सरस्वती विहार, दिल्ली, 1990, पृ. 71
खेतान, डाॅ. प्रभा, छिन्नमस्ता, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली, 1993, पृ. 10-11
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