गुप्तकालीन कला में परिलक्षित पर्यावरणीय चेतना : एक ऐतिहासिक अध्ययन
Keywords:
गुप्त िाम्राज्र्, मूर्ताकलाAbstract
कला विकास यात्रा की भारतीय परंपरा का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। ताम्रप्रस्तर युगीन सैन्धव सभ्यता से लेकर ऐतिहासिक संस्कृति के काल क्रम में इस देश की कला धारा अपने प्रवाहमान स्वरूप की साक्षी है। वैदिक कालीन साहित्य में प्राप्त कलात्मक विचारों का पुरातात्विक प्रमाण अभी अप्राप्य है, किन्तु उसी परंपरा में शिशुनाग, नंद, मौर्य, शुग, सातवाहन, कुषाण, गुप्त आदि शासकों के काल में स्थापत्य कला, मूर्तिकला, चित्रकला, मृण्मय, धातु, संगीत एवं अलंकरण, आभूषण कलाओं के बहुमुखी विकास में दृष्टिगत होता है, जो कि अत्यंत विस्तृत एवं विशाल है। गुप्तकाल बौद्धिक चेतना का महान युग था। भारतीय इतिहास में गुप्तकाल ‘स्वर्णयुग’ के नाम से प्रतिष्ठित है। यह काल ईसवी चैथी शती के आरम्भ से छठी शती के अंत तक माना जाता है। लगभग तीन सौ वर्षों के इस दीर्घ-काल में भारतीय स्थापत्य, मूर्तिकला, चित्रकला, साहित्य, संगीत के क्षेत्र में विशेष उन्नति हुई। जिसकी पुष्टि तद्युगीन साहित्यिक रचनाओं तथा कलाकृतियों से होती है। गुप्त युग में मंदिरों, स्तूपों, मठों, प्रतिमाओं आदि का निर्माण देश के विभिन्न क्षेत्रों में दृष्टिगत है। उल्लेखनीय है कि गुप्त-कलाकारों ने अपने कला में अध्यात्म के साथ-साथ लोक जीवन के विभिन्न पक्षों को उद्घाटित कर लोगों में सौन्दर्य और आनंद की वृद्धि की, साथ ही इस बात पर विशेष बल दिया कि कला-कृतियाँ चरित्र निर्माण में सहायक बनें।
References
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प्राचीन भितीर् कला वास्तु कला एवुं मूर्ता कला, रििचा पक्षब्लकेशन, जर्पुि, पृ.-79
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