मध्यकालीन संत साहित्य में ब्रह्म की व्यापक अवधारणा की सामाजिक चेतना
Keywords:
व्यापक अवधारणा, मध्यकालीन संतAbstract
भक्ति आंदोलन एक ऐसी ऐतिहासिक घटना थी, जिसका समाज पर बहुआयामी प्रभाव दिखायी देता है। भक्ति आंदोलन के उदय में प्राचीन संस्कार, अनगिनत परंपराएँ, आस्थाएँ और विश्वास थे, साथ ही उसके स्वरूप निर्धारण में तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक परिस्थतियाँ की भी महती भूमिका है। भक्ति और साधना का प्रचार यद्यपि उत्तर और दक्षिण भारत में एक साथ हो रहा था तथापि कुछ निश्चित कारण ऐसे थे जो उसका स्वरूप निर्धारित कर रहे थे। भक्ति और प्रेम जीवन का स्वरूप एकान्तिक होने पर भी इस भक्ति आंदोलन का साजिक पक्ष बहुत ही सशक्त तथा प्रभाव था। यही कारण है कि ब्रह्म का जो स्वरूप संत काव्यधारा में वर्णित किया गया उसके एकान्तिक भक्ति के अतिरिक्त सामाजिक सरोकार भी थे। संत काव्यधारा के ब्रह्म के स्वरूप पर चर्चा करते हुए उसके सामाजिक कारणों तथा प्रगतिशील स्वरूप पर प्रस्तुत शोध-पत्र किया गया है।
मध्यकालीन साहित्य में निर्गुण उपासकों को संत और सगुण उपासकों को भक्त कहा गया। शाब्दिक अर्थ की दृष्टि के तत्वत: दोनों में कोई अंतर नहीं है। संत भक्ति भी है और सभी भक्तसंत प्रवृत्ति के है। क्योकि भृर्तहरि ने कहा है - सन्तः स्वयं पर हिते विहिताभियोमाः। संत स्वेच्छा से दूसरों का हित करने में लगे रहते है। परंतु हिंदी समीक्षा में संत शब्द ज्ञानात्रित निर्गुण परंपरा के रूढ हो गया। निष्काय प्रवृति, सभी विष्ज्ञयों से निर्लिप्त तथा ईवर से प्रेम करने वाले ही संत है ऐसा कबीरदास भी कहते है- ”निरबैरी निहकांमता साईं सेती नेह। बिखया सौं न्यारा रहै संतनि कौ अंग एह।
References
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