प्रेमचंद, निराला और नागार्जुन की रचनाओं में दलित यथार्थ: एक विवेचना

Authors

  • र्ागृनत

Keywords:

पारंपररक सानित्य, प्रचारिादी

Abstract

हिन्दी साहित्य में आधुनिकता की दस्तक ने युगांतकारी बदलाव किए। नयी चेतना ने  गैरबराबरी के सभी मंसूबों से संघर्ष का मन बनाया । दलित जीवन के यथार्थ से रू-ब-रू होना आधुनिक साहित्य की एक मुख्य चेतना थी। इन स्वरों में सबसे पहली और मुखर आवाज प्रेमचंद की सुनायी पड़ी। उन्होंने उन्हें नायकों का दर्जा दिया, जिन्हें पारंपरिक साहित्य त्याज्य या घृणास्पद मानता था। उनके रुख पर तत्कालीन आलोचक बिदके और उन्हें घृणा का प्रचारक कहा। अभी भी ऐसे आलोचकों की कमी नहीं, जिनका यह दावा होता है कि साहित्य तो साहित्य होता है, उसमें असहमति, विद्रोह और गैरबराबरी को पाटने के प्रयास से संघर्ष की अनुगूँज नज़र आये तो वह प्रचारवादी होता है। सौंदर्य शास्त्र के कलात्मक मान दंड क्षतिग्रस्त होते हैं। लेकिन जैसे जीवन और समाज की समग्रता के लिए शोषण की हर समझ से असहमत होना जरूरी है, उसी तरह साहित्य की समग्रता के लिए यह जरूरी है कि हर स्वर को आवाज़ मिले। निस्संदेह दलित साहित्य की पड़ताल उसका हिस्सा है। दलित चेतना की पड़ताल करते समय हमें अनेक गैरदलित साहित्यकारों का रचना संसार भी नज़र आता है। जिनमें सबसे मुखर आवाज  प्रेमचंद, निराला और नागार्जुन की है।

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Published

2018-06-30

How to Cite

र्ागृनत. (2018). प्रेमचंद, निराला और नागार्जुन की रचनाओं में दलित यथार्थ: एक विवेचना. Universal Research Reports, 5(6), 102–106. Retrieved from https://urr.shodhsagar.com/index.php/j/article/view/845

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Original Research Article