कौटिलीय अर्थशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में अपराध और दण्ड-नीति में नारी

Authors

  • देवी

Keywords:

दंड दंड नीति, अपराध

Abstract

कौटिल्य का विचार था कि उचित न्याय व्यवस्था के लिये सरकार द्वारा न्याय की समुचित व्यवस्था करनी चाहिये, ताकि लोगों के जीवन और सम्पत्ति की रक्षा को जा सके। उन्होंने कहा था कि मनुष्य को स्वधर्म का पालन करना चाहिये। परन्तु अनेकों परिस्थितियों से उत्पन्न विकृत्तियों के कारण मनुष्य धर्म से विचलित हो कर पथ भ्रष्ट हो जाता था और इस कारण व्यक्ति के लिये समाज में न्याय एवं दण्ड व्यवस्था आवश्यक है। न्याय. कार्य को उन्होंने दो भागों में बांटा था। मानव जीवन के जो मनुष्यों के पारस्परिक सम्बन्धों से सम्बन्धित होते थे। उन विवादों को सुनकर निर्णय कर दण्ड धर्मस्थीय न्यायालयों का कार्य होता था। मानव जीवन का दूसरा भाग जिसमें मनुष्य के कार्य समाज व राज्य के विरूद्ध होते थे उनके वादों को सुनना व निर्णय कर दण्ड कण्टकपोधन न्यायालय द्वारा दिया जाता था। धर्मस्थीय न्यायालय के न्यायधीशों को ’धर्मस्थ’ या व्यावहारिक कहते थे इसमें तीन न्यायधीश होते थे। कण्टकशोधन न्यायालयों के न्यायधीशों को ’प्रदेष्टा’ कहा जाता था। इसमें भी तीन न्यायधीश होते थे। इन न्यायालयों को आधुनिक समय में क्रमशः दीवानी व फौजदारी कहा जा सकता है। वैसे तो मौर्य काल में सबसे छोटा न्यायालय ग्राम का व सबसे बड़ा राजा का न्यायालय होता था।

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Published

2021-12-30

How to Cite

देवी व. (2021). कौटिलीय अर्थशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में अपराध और दण्ड-नीति में नारी. Universal Research Reports, 8(4), 29–34. Retrieved from https://urr.shodhsagar.com/index.php/j/article/view/937

Issue

Section

Original Research Article