कुषाण काल में बौध प्रतीकों का निर्माण एवं प्रतिमाओं की विशेषताएँ
Keywords:
बुद्ध प्रनतमा का निमााण, प्रनतमाओं की नवशेषताएँAbstract
कुषाण वंश (लगभग 1 ई. से 225 तक) ई. सन् के आरंभ से शकों की कुषाण नामक एक शाखा का प्रारम्भ हुआ। विद्वानों ने इन्हें युइशि, तुरूश्क (तुखार) नाम दिया है। युइशि जाति प्रारम्भ में मध्य एशिया में थी। वहाँ से निकाले जाने पर ये लोग कम्बोज-वाह्लीक में आकर बस गये और वहाँ की सभ्यता से प्रभावित रहे। हिन्दूकुश को पार कर वे चितराल देश के पश्चिम से उत्तरी स्वात और हज़ारा के रास्ते आगे बढ़ते रहे। तुखार प्रदेश की उनकी पाँच रियासतों पर उनका अधिकार हो गया। ई. पूर्व प्रथम शती में कुषाणों ने यहाँ की सभ्यता को अपनाया।
कुषाण काल में मथुरा में तीन धार्मिक संप्रदाय प्रमुख थे-जैन, बौद्ध और ब्राह्मण। इनमें ब्राह्मण धर्म को छोड़कर किसी को भी मूलत: मूर्ति पूजा मान्य न था। परन्तु मानव की दुर्बलता एवं अवलम्ब अथवा आश्रय खोजने की स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण शनै: शनै: इन सम्प्रदायों के आचार्य स्वंय ही उपास्य देव बन गये। साथ ही साथ उपासना के प्रतीकों का भी प्रादुर्भाव हुआ। ई. पू. द्वितीय शताब्दी के पहले से ही बुद्ध के प्रतीक जैसे-स्तूप, भिक्षापात्र, उण्णीश, बोधिवृक्ष, आदि लोकप्रिय हो गये थे। जैन संप्रदाय में भी चैत्य स्तम्भ, चैत्य वृक्ष अष्ट माङ्गलिक चिन्ह आदि प्रतीकों को मान्यता मिल रही थी। कुषाण काल तक पहुँचते-पहुँचते इन प्रतीकों के स्थान पर प्रत्यक्ष मूर्ति की संस्थापना की इच्छा बल पकड़ने लगी और अल्प काल में ही माथुरी कला ने तीर्थ करों की मूर्तियाँ और बौद्ध मूर्तियों को जन्म दिया।
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