गीता में कर्मयोग
Keywords:
कर्म, शब्द संस्कृकर्म, मनुष्यAbstract
कर्म शब्द संस्कृत के कू घातु से बना है। जिसका अर्थ है किसी काम में शामिल होना या किसी क्रिया में संलग्न होना। मनुष्य एक सामजिक प्राणी है। वह कर्म के बिना नहीं रह सकता। जन्म से लेकर मृत्यु तक कर्म करता रहता है। जीवन जीन के लिए हर प्राणी को कर्म करना पड़ता है। चाहे वो मनुष्य हो या पशु हो, ये सब कर्म के कारण जीवित है, जिसे जगत और प्राणियों की उत्पत्ति हुई है। जब प्रकृति से जीवन की उत्पत्ति होती है, तो कर्म के अधीन होती है। इस संसार में हर चीज कर्म के अधीन हैं कर्म से कोई मुक्ति नहीं है। जैसे बीज, चमकता हुआ सूरज, घंधकती आग, बहती हवा आदि ये सब कर्म के नियम से बंधे हुए है। मनुष्य कर्म करता है। चाहे वह बुरा हो या चाहे अच्छा हो यदि मनुष्य बुरा कर्म करता है तो बुरा फल मिलता है और यदि अच्छा कर्म करता है तो अच्छा फल मिलता है। परन्तु मनुष्य को मानसिक और शाीररिक सब कर्म करने पड़ते है। जैसे हमारा सांस लेना, चलना-फिरना, उठना बैठना आदि ये सब कर्म है।
References
कर्म ओर कर्मयोग, सवामी निरजनाननद सरसवती, पृ0 सं0 --3
“न हि कश्चित्क्षण भपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् |
कार्यते हापशः कर्म सर्व: प्रकृति जैगुणै “योगस्वथः कुरूकर्माणि सडत्यकत्वा धन्अचय: |
सिद्धिय सिद्धयो: समो भूत्वा समत्व योग उच्यसते: ।।... (गीता2/48)
“बुद्धि युक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कूते तस्माद्योगाय युज्यस्व यो: कर्मसु कौशलम् ।। (गीता2/ 50)
“योग: कर्मशु कौशलम्” । (गीता 2/50) मनव- चेतना, प्रो0 ईशवर भारद्वाज, पू० सं0-- 262,263
कर्म ही पूजा है, कर्मयोग- साधना, स्वामी शिवानन्द . पृ० सं0-6 ष्डशवर: सर्वभूताना हृदेशे&र्जुन तिष्ठति |
भप्रमायन्सर्व भूतानि यत्रारूढानि मायया” ।| (गीता-8,/6) कर्मयोगी की योग्यताएं, स्वामी सिवानन्द पृ सं0 4
* संनियम्येन्द्रि यग्ताम: सर्वत्र समबुद्धयः | त्ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता” ।। (गीता2,/4) निष्कर्ष